पिछले भाग से आगे …..

सुबह सवेरे मोबाईल में अलार्म बजते ही निद्रा खुल गई, ऐसा लगा कि जैसे अभी कुछ मिनट पहले ही तो सोए थे(4 घंटे पहले सोए थे)। नींद खुलने के बाद ठण्ड लगने लगी थी, रात को चढ़ाई गर्मी का असर समाप्त हो गया था, उस की वजह से रात निकल गई थी यही बहुत था वर्ना बहुत बुरा हाल हो सकता था। बाहर आकर हमने सुहावनी सुबह के दर्शन किए, सूर्य पर्वतों के पीछे से उदय हो रहा था और राहत की बात यह थी कि हल्की हल्की धूप दिखाई दे रही थी, कोहरा आदि कुछ भी नहीं था। हम सभी उठ कर लड़कियों के कमरे की ओर चल पड़े और जाकर देखा कि अभी तो वे भी नहीं उठे थे। बहरहाल क्योंकि हम लोगों का जल्दी निकलने का कार्यक्रम था इसलिए सभी फ़टाफ़ट तैयार होने लगे, रिसॉर्ट का एक कर्मचारी थोड़ी थोड़ी देर में हमको गर्म पानी लाकर दे रहा था और एक-एक कर सभी तैयार होते जा रहे थे। शीघ्र ही तैयार हो हम अपने रास्ते निकल लिए, मन्ज़िल थी कुछ दूरी पर स्थित ताड़केश्वर महादेव मंदिर जो कि भारत के सबसे पुराने सिद्धपीठों में से एक है।

रास्ता पूछते-पूछते हम आगे जा रहे थे, लान्सडौन से तकरीबन 8 किलोमीटर आगे निकल आने के बाद एक जगह पूछा तो पता चला कि अभी लगभग 20-22 किलोमीटर और जाना था। इधर पहाड़ी रास्ते के तीव्र घुमावों और तीखे मोड़ों के कारण संजुक्ता तथा एकाध की तबीयत खराब सी होने लगी, तो सबने यही निर्णय लिया कि वापस लौट लिया जाए, कहीं 20 किलोमीटर के आगे के सफ़र और लगभग 30 किलोमीटर के वापसी के सफ़र में इनकी तबीयत और खराब न हो जाए। वापस लान्सडौन पहुँच हम लोग टिप-इन-टॉप की ओर चल दिए जो कि लान्सडौन की मशहूर जगहों में से एक है क्योंकि यहाँ से नज़ारा बहुत अच्छा नज़र आता है। टिप-इन-टॉप पहुँच सभी लोग अपने अपने कैमरे निकाल व्यस्त हो गए(तस्वीरें लेनें में)।


( टिप-इन-टॉप से नज़ारा )


वहीं पास में लान्सडौन का सबसे पुराना गिरजा, सेंट मेरी चर्च, है जिसमें अब एक छोटा सा संग्रहालय भी बना दिया गया है।


( सेंट मेरी चर्च )


दोपहर हो आई थी तो हमने भोजन करने की सोची क्योंकि सुबह भी कुछ खाए बिना ही निकले थे। तो भोजन करने हम पहुँच गए लान्सडौन के मुख्य बाज़ार में स्थित मयूर होटल में जहाँ के परांठों की तारीफ़ मोन्टू पिछले दिन से किए जा रहा था। भोजन की प्रतीक्षा करते-करते एक-एक मिनट मानो सदियों की तरह बीत रहा था, तो कई सदियों की प्रतीक्षा के बाद खाद्य सामग्री हमारी टेबल पर आई और सभी लोग स्वादिष्ट खाने का आनंद लेने लगे। अब खाना वाकई स्वादिष्ट था कि नहीं यह तो कह नहीं सकते क्योंकि उस समय हम सभी क्षुधा से अति व्याकुल थे और वो कहते हैं न कि

भूख में किवाड़ भी पापड़ लगते हैं

भूख में चने भी मेवा लगते है

बस तो इन्हीं कहावतों को चरितार्थ भी कर सकता है वहाँ का खाना, इसलिए कोई इस को दिल पर न ले कि वहाँ का खाना बहुत अच्छा था!! 😉 बहरहाल, पेट भर चुकने के बाद हमने पास ही में मौजूद कृत्रिम रूप से तैयार किए गए भुल्ला-ताल जा नौका विहार करने का निर्णय लिया।

कुछ ही देर में हम लोग भुल्ला-ताल पहुँच गए और दो-दो के जोड़ों में नौकाओं में सवार हो गए। संजुक्ता और शोभना की मौज हो गई क्योंकि उनको हितेश और वरुण के रूप में दो नौका चालक मिल गए, इसलिए वे लोग 4 लोगों वाली नौका में आगे की सीटों पर बैठ गए ताकि बेचारे दोनों लड़के उनको नौका विहार करा सकें!! 😉 बाकी मोन्टू और निधि एक नौका में थे तथा मैं और एन्सी एक नौका में विहार कर रहे थे। ताल में कुछेक बतखें भी थीं, रंगीन और श्वेत रंग की। तो मैंने और एन्सी ने उनके पास जाकर उनकी तस्वीरें लेने की सोची, पूरे ताल का चक्कर लगा एक जगह उनको घेर ही लिया!! 🙂




तैरते हुए इन बतख़ों के दो वीडियो भी उतारे जो कि यहाँ उपलब्ध हैं।

जब नौका विहार कर चुके तो ताल से बाहर आकर वहाँ रखी कुर्सियों पर बैठ धूप का आनंद लेने लगे क्योंकि हितेश और शोभना का मन नौका विहार से भरा नहीं था और वहाँ मौजूद एकलौती हंस के आकार वाली नौका में उनको विहार करना था। थोड़ी देर बाद जब वे लोग भी आ गए तो हमने आगे बढ़ने की सोची। तभी नज़र पास ही रखे पिंजरे में मौजूद अंगूरा खरगोशों पर गई। हमारे पिंजरे के पास पहुँचते ही वे सभी हमारे पास तुरंत इस उम्मीद में आए कि उनको खाने को कुछ मिलेगा, लेकिन अंत में बेचारों के हाथ निराशा ही आई क्योंकि हमारे पास खाने को कुछ नहीं था, लेकिन उनकी तस्वीरें लेना नहीं भूले। 🙂


( अंगूरा खरगोश )


तत्पश्चात हम सभी पास ही में मौजूद संतोषी माता के मंदिर पहुँचे। मंदिर की सीढ़ियाँ ऊँची और बहुत सारी थी, एन्सी और संजुक्ता ने जाने से मना कर दिया, तो हम सब बाकी लोग ऊपर चल पड़े, मंदिर तक पहुँचते पहुँचे सांस फूल गई!!! मंदिर की कोई खासी महिमा नहीं, जैसे अन्य मंदिर होते हैं वैसा ही है, कोई पुजारी भी आस पास नहीं था, लेकिन ऊँचाई पर होने के कारण वहाँ से नीचे का नज़ारा बहुत अच्छा था।

शाम हो आई थी, इसलिए मंदिर से नीचे उतर हम वापस रिसॉर्ट की ओर चल दिए। अब तक रिसॉर्ट लगभग खाली हो ही गया था, इसलिए हमको लड़कियों के कमरे के बराबर में ही दो बढ़िया कमरे मिल गए। सभी के सभी एक कमरे में बिस्तर पर लद गए और चाय-पानी तथा नाश्ते का हुक्म दनदना दिया गया। इधर उधर की बातें होती रही, टीका टिप्पणियाँ भी चलती रही। सभी से कहा गया कि वे एक दूसरे के बारे में अपनी अपनी राय व्यक्त करें पिछले दो दिनों के अनुभव पर। इस तरह राय व्यक्त की गईं और उन पर चर्चा हुई, समय तेज़ी से बीता। रात्रि हो आई और रिसॉर्ट के कर्मचारी ने आकर बताया कि उस रोज़ उनकी रसोई रात्रि 9 बजे बंद हो जाएगी क्योंकि वे लोग पिछली रात के जागे हुए हैं(बेकार की बात है, नववर्ष की रात्रि वे लोग 12-1 बजे सो गए थे)। खैर, हमने कोई बहस नहीं करी और उसको कह दिया कि हम लोगों के लिए भोजन अंत में लाए, यानि कि 9 बजे के आसपास।

साढ़े आठ बजे के आसपास नए मिले दो कमरों के पास की खाली जगह पर आग का प्रबंध किया गया और खाना भी वहीं लगवा दिया गया। सभी ने निश्चय किया था कि उस रात कोई मदिरापान नहीं करेगा, पिछली रात का ड्रामा काफ़ी था, अन्यथा स्टॉक तो अपने पास पर्याप्त से कुछ अधिक ही था। 😉 पिछली रात की तरह इस बार खाना ठण्डा नहीं करते हुए सभी ने गर्मा-गर्म खाया और पूरा आनंद उठाया। खाना खा चुकने के बाद आग को घेरे सभी बैठे बतिया रहे थे कि बात वहाँ जंगल में कभी कभार विचरने वाले चीतों पर चली गई। रिसॉर्ट के कर्मचारी से पूछा तो उसने बताया कि अब चीते आदि नहीं आते क्योंकि इंसानों की आवाजाही उस इलाके में बढ़ गई है। हितेश बाबू अपने बांधवगढ़ के अनुभव के बारे में बता रहे थे कि जंगल में कुछ दूर एक टॉर्च की रोशनी दिखाई दी जो कि तीव्र गती से हिलती-डुलती हमारी ओर बढ़ रही थी। अब न जाने शेर-चीते की बातों का डर था या कुछ और, सभी लड़कियाँ डर कर हमारे कमरे में जा घुसी। उनको यह समझाया कि कोई शेर-चीता टॉर्च लेकर हमारे पास नहीं आएगा तो उन्होंने कहा कि हो सकता है कि टॉर्च वाले व्यक्ति के पीछे पड़ा हो अन्यथा वह इतनी तेज़ी से भागत हुआ क्यों आ रहा था। तभी बाहर से आ किसी ने बताया कि वह व्यक्ति स्थानीय था और कदाचित्‌ तेज़ी से इसलिए आ रहा था क्योंकि ठण्ड बढ़ रही थी और वह जल्द ही अपने घर पहुँचने का इच्छुक था। परन्तु उस वाकये के बाद लड़कियाँ आग के पास बैठने की इच्छुक नहीं लगी, इसलिए सभी कमरों में आ गए।

थोड़ी देर बाद सभी इस बात पर सहमत हो सोने चले गए कि अगले दिन सुबह जल्दी उठ वापसी की राह पकड़ी जाए क्योंकि हमने वापसी के रास्ते में कर्ण्वाश्रम भी देखना था।

अगले भाग में जारी …..