नया सवेरा और एक और नई यात्रा पर जाने का पिरोगराम। 😉 इस बार मंज़िल थी पंच केदारों में तृतीय केदार तुन्गनाथ। दिल्ली से लगभग 495 किलोमीटर का सड़क का सफ़र कर पहुँचना था चोपटा और वहाँ से 4 किलोमीटर का पैदल सफ़र कर और लगभग 3000 फ़ीट की चढ़ाई कर पहुँचना था तुन्गनाथ। वैसे वहाँ घोड़े आदि भी चलते हैं लेकिन हम लोग तो पैदल ही चलने का पिरोगराम बनाए थे। ज़्यादा नहीं, इस बार हम केवल 4 लोग ही थे यात्रा पर।

इस बार भी वही हुआ जो कि हर यात्रा से पहले होता है, विचारों का आदान प्रदान आदि, यानि कि समझ गए होंगे!! 😉 शुक्रवार 11 अगस्त की रात्रि हम लोग निकल चले गाड़ी में। हमारा पहला पड़ाव पड़ना था उखीमठ नाम की जगह पर जो कि रूद्रप्रयाग से भी आगे है। रात्रि के अंधकार को चीरती गाड़ी भागती रही और बाकी लोग पीछे बैठे नींद लेने लगे, मैं आगे ड्राईवर के बगल में बैठा था, सो नहीं सकता था, पर झपकी फ़िर भी आ ही जाती। लेकिन कदाचित्‌ हम लोगों की शुरूआत सही नहीं हुई थी, हरिद्वार से पहले सड़क पर एक जगह छोटी-मोटी दुर्घटना हो गई थी और इस कारण दो घंटे तक जाम लगा था जहाँ हम बेचैनी से जाम खुलने की प्रतीक्षा करते गर्मी में सड़ रहे थे, करने के लिए कुछ था नहीं, मक्खियाँ भी नहीं थी जो उन्हें मारते!! 😉 आखिरकार पुलिस की गाड़ी आई और उन्होंने जादू-मंतर मारा, गाड़ियाँ धीरे धीरे आगे सरकने लगी और एक बार पुनः हम अपनी राह पर थे।


लगभग 6 बजे के आस पास हम ऋषिकेश पहुँचे, जहाँ हम दो घंटे पहले पहुँच गए होते यदि जाम में ना फ़ंसे होते। हमने वहाँ से देवप्रयाग की राह पकड़ी पर थोड़ा आगे पुलिस ने रोक लिया। फ़िर वही ड्रामा आरम्भ हुआ जो होता है, बाकी समझदार को इशारा काफ़ी है। लेकिन बिना जेब ढीली किए पुलिस वाले को समझा-बुझा के निकल लिए। अभी थोड़ा आगे और गए होंगे कि फ़िर पुलिस वालों ने रोक लिया। अब यहाँ पर दो सौ रूपए का चढ़ावा देना पड़ा, तब जान छूटी। 🙁 लेकिन उसके बाद तो बेधड़क निकलते चले गए, किसी ने नहीं रोका। देवप्रयाग पहुँच हमने अलकनंदा और भगीरथी का संगम देखा। ये दो नदियाँ गंगा का रूप ले ऋषिकेश की ओर बढ़ जाती हैं।


( देवप्रयाग में अलकनंदा और भगिरथी के संगम से बनती गंगा )


पेटपूजा का ख्याल आया तो देवप्रयाग के गढ़वाल मण्डल के यात्री निवास में पहुँचे, मुँह-हाथ धो तरोताज़ा हुए, लड़कियों ने अपना-अपना मेकअप सही किया और उसके बाद बेस्वाद पूरी-भाजी का अनमने ढ़ंग से नाश्ता किया। तत्पश्चात निकल चले अपनी मंज़िल की ओर और जैसे जैसे आगे बढ़ते जा रहे थे, सुंदर पहाड़ी नज़ारों की गिनती बढ़ती जा रही थी!! 😀


आखिरकार, रास्ता पूछते पूछते हम उखीमठ और वहाँ के गढ़वाल मण्डल के यात्री निवास पर पहुँच गए। यात्री निवास पहाड़ी की ढलान पर बना हुआ था, सामने बायीं ओर दूसरे पर्वत की ढलान पर बसी गुप्तकाशी दिखाई देती थी और दायीं ओर दूर केदार पर्वत भी दिखाई देता था लेकिन अधिकतर वह बादलों के पीछे छुपा हुआ था। नीचे तलहटी में बहती मन्दाकिनी नदी भी दिखाई दे रही थी, पहाड़ी सड़कें भी दिखाई दे रही थी, कुल मिला कर नज़ारा ऐसा था कि बस घंटों उसी को देखते रहो!! 🙂


( नीचे बहती मन्दाकिनी और पहाड़ी सड़कें )

( गुप्तकाशी )


यहाँ हमने दोपहर का खाना खाया, और फ़िर नहा धो के तरोताज़ा हुए। अभी गुप्तकाशी हो कर आने का पिरोगराम बन ही रहा था कि तभी बरसात होने लगी और सारे अरमानों पर बूंद बूंद पानी पड़ गया। खैर, थोड़ी देर हमने बरसात और बढ़िया हो चले मौसम का मज़ा लेने की सोची, इसलिए बरामदे में कुर्सियाँ डाल के पसर गए(कुर्सियों पर ही)। संध्या हो आई थी जब निर्णय लिया गया कि पास के ओंकारेश्वर मंदिर को देख आते हैं जो कि लगभग आधा किलोमीटर की दूरी पर था। हम लोग टार्च आदि ले पैदल ही निकल पड़े। मन्दिर बहुत पुराना और जीर्ण-शीर्ण था, एक पुजारी ने बताया कि यह मंदिर लगभग 5500 वर्ष पूर्व पांडवों ने महाभारत के युद्ध के बाद उस समय बनवाया था जब वे मोक्ष की प्राप्ति के लिए शिव जी को प्रसन्न करने का प्रयास कर रहे थे।


( तथाकथित 5500 वर्ष पहले पांडवों द्वारा बनवाया गया ओंकारेश्वर मंदिर )


संध्या काल की आरती का समय हो आया था, पुजारी ने आरती में बैठने का आग्रह किया, बाकी साथियों का मन था, इसलिए हम भी आरती में बैठ गए। आरती समाप्त होते होते पूर्ण अंधकार हो आया था, हम अपनी अपनी टार्चों से मार्ग को रोशन करते वापस यात्री निवास की ओर बढ़ चले। यात्री निवास की बिजली भी गोल थी, जेनरेटर चला रखा था। हम भोजन करने पहुँचे तो एक और परिवार जो वहाँ हमारे बाद आया था, वह भी आ गया। उन लोगों ने भी तुन्गनाथ जाना था, परन्तु कुछ अनिश्चय की सी स्थिती थी, कदाचित्‌ वे लोग केदारनाथ की ओर निकल जाते। उस परिवार के बुजुर्ग एक अंकल ने हम लोगों को अपनी केदारनाथ की यात्रा का किस्सा सुनाया, अपने जीवन और धार्मिक दर्शन से अवगत कराने की असफ़ल चेष्टा की, नशे में होने के कारण वे अंकल एक बात कई कई बार बोल जाते थे। खैर, अपना रात्रि-भोज समाप्त कर हम उठ खड़े हुए और शुभरात्रि कह उस परिवार से विदा ली। अगले दिन सुबह वह परिवार हमसे पहले चोपटा की ओर निकल गया, यानि उनका तुन्गनाथ जाने का ही निर्णय था। बाकी लोगों को सुबह सुबह उनके जाने की खुशी थी, लेकिन मैं तो सुबह देख कर ही खुश था, बादल नहीं थे, हल्की धूप निकल आ रही थी और सामने केदार पर्वत की चोटी और उस पर जमी बर्फ़ खूब चमक रही थी।


( केदार पर्वत की बर्फ़ से ढकी चोटी )


ऐसा सुंदर नज़ारा देख दिल बाग-बाग हो गया। सोचा कि अभी इतने सुंदर नज़ारे देखने को मिल रहे हैं, आगे तो और भी मिलेंगे। तो हम भी अपना हिसाब-किताब चुकता कर यात्री निवास से चोपटा की ओर चल पड़े, जो कि लगभग 30 किलोमीटर की दूरी पर था।

अगलें अंक में ज़ारी …..